भारतीय सिनेमा के इतिहास के विषय में जहां तक मेरी अपनी जानकारी है दादा साहेब फाल्के जी ने 1899 में एक कुश्ती मैच की सरल रिकॉर्डिंग की थी जिसे “द रेसलर” के नाम से जाना जाता है| भारतीय फिल्म उद्योग में यह पहला चलचित्र माना जाता है इसीलिए दादा साहेब फाल्के जी हिंदी सिनेमा के पितामह माने जाते हैं| आज भी उन्हीं के नाम से “दादा साहेब फाल्के पुरस्कार” का आयोजन किया जाता है|
आजादी के पहले सन् 1913 में “राजा हरिश्चंद्र” के नाम से फिल्म बनी जो कि ध्वनि रहित होने के बावजूद भी बहुत सफल रही| 1913 से लेकर 1918 तक दादा साहेब फाल्के जी द्वारा बहुत सी फिल्मों का निर्माण किया गया| विदेशों के अपेक्षा हमारी फिल्मों का निर्माण धीमी गति से आगे बढ़ता रहा| सन 1931 में “आलम आरा” नाम की फिल्म बनी जो भारतीय हिंदी सिनेमा के इतिहास की पहली टॉकीज फिल्म थी जिसका पहला गीत “दे दे खुदा” के नाम पर था| इसके बाद कई निर्माता, निर्देशकों ने भारतीय सिनेमा को आगे ले जाने का कार्य किया जिसे दर्शकों ने खूब सराहा और पसंद किया| 1930 से लेकर 1940 तक कई प्रख्यात फिल्मी हस्तियों ने फिल्मों को पर्दे पर उतारा| इस तरह धीरे-धीरे हिंदी सिनेमा पुष्पित और पल्लवित होते हुए आगे बढ़ता रहा|
अब श्वेत-श्याम फिल्मों के साथ ही साथ रंगीन फिल्मों का भी प्रादुर्भाव होने लगा| हिंदी ही नही क्षेत्रीय भाषाओं में भी फिल्में बनाने की कोशिश होने लगी| तत्कालीन “नल दमयंती” नाम की एक बंगाली फिल्म की बहुत सराहना हुई|
दक्षिण भारतीय फिल्म “कीचक वधम” मैं पहली बाल कलाकार के रूप में दादा साहेब की बेटी ने भाग लिया| इसके अलावा आसामी , मराठी , उड़िया , पंजाबी आदि कई क्षेत्रीय भाषाओं में फिल्में बनाई जाने लगी| कुछ फिल्में विदेशों में भी फिल्माए जाने लगी| इस दौर में अधिकतर साहित्यिक और ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण हुआ जिसमें भारतीय गायन और वादन का भी उपयोग होने लगा| स्वतंत्रता आंदोलन के कारण फिल्मों में थोड़ा व्यवधान भी उत्पन्न हुआ| ऐसे में कुछ देश प्रेम से प्रेरित फिल्में भी बहुत पसंद करी गई|
सन 1947 में स्वतंत्र भारत के स्थिर हो जाने के बाद फिल्म उद्योग में उल्लेखनीय और उत्कृष्ट परिवर्तन होने लगे| कुछ देशी और विदेशी तकनीकों के सम्मिश्रण से भारतीय फिल्म उद्योग उन्नति की ओर अग्रसर होने लगा| उस कालखंड से संबंधित , समाज के प्रत्येक वर्ग से संबंधित , सुख-दुख के विषय को लेकर फिल्में बनने लगी| ऐतिहासिक , पौराणिक और समाजिक संदेशों से ओतप्रोत फिल्मों ने नई नई विधाओं, कलाकारों , निर्माता , निर्देशकों , तकनीशियनों के लिए मार्ग प्रशस्त होने लगा|
इस तरह उन्नति की ओर बढ़ते हुए प्राचीन फिल्म उद्योग बहुतो को रोजगार प्रदान करने में भी समर्थ हो गया| और सामाजिक जीवन में भारतीय हिंदी सिनेमा मनोरंजन का एक प्रमुख स्रोत बनते हुए उन्नति की ओर बढ़ता रहा ।।